'Father of Sociology ' Emile Durkheim के अनुसार, धर्म वह घटना है जो एक 'Profane ' इंसान को 'Sacred' से अलग करती है। Durkheim के अनुसार, मानव Homo Duplex(दोहरी सोच का जीव) हैं, जिसका अर्थ है कि प्रत्येक मनुष्य के दिमाग की दो अवस्थाएँ होती हैं:
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पहला स्तर जिसे Profane कहा जाता है| यह एक ऐसी अवस्था है जिसमें हर इंसान केवल रोजमर्रा की जीवन की बुनियादी ज़रूरतों जैसे भूख, आश्रय आदि को भरने के बारे में सोंचता है। इस अवस्था में व्यक्ति किसी भी चीज़ से पहले खुद को रखता है।…. यानिकी यह मनुस्य
के सेल्फिश(selfish) नेचर को दर्शाता है, जिसमें समाज की जरूरतों से ज्यादा खुद के जरूरतों को
वैल्यू(value) दी जाती है ।
→दूसरे स्तर को sacred स्तर कहा जाता है। यह स्तर वह है जो मनुष्य को हर दूसरी जीवित प्रजातियों से अलग करता है। यह एक ऐसी अवस्था है, जिसमे मनुष्य थोड़ा अलग सोच प्रकट करता ह। इस अवस्था की पहचान है की "मनुस्य खुद की जरूरतों और दुसरो की जरूरतों के बीच का अंतर ख़त्म कर देता है "। फलतः मनुष्य के सोंच की वो दीवारें, जो उसके सेल्फिश (profane वाला नेचर ) को sacred से अलग करती ह…… वो कमजोर हो जाती ह।
यह वह अवस्था है जिसमें कई मानव एक सामान्य कारण की ओर काम करते हुए समूह को स्वयं से पहले रखते हैं। ऐसा व्यवहार व्यापक रूप से एक संस्कृति, एक समाज या एक देश को एकजुट करने के लिए जरुरी माना जाता है। इसलिए, अनिवार्य रूप से कोई भी एक उद्देश्य, जो लोगों को एक साथ लाकर स्वयं के अलावा एक सामूहिक उद्देश्य को प्राप्त करा सकता है, वह धीरे-धीरे वक्त के साथ एक धर्म बन जाता है। तात्पर्य यह है कि धर्म की परिभाषा केवल पवित्र मान्यताओं के एक समूह तक ही सीमित नहीं है, बल्कि खेल या दर्शन जैसे बाध्यकारी कारक भी इसके defination के अंतर्गत आते हैं।
क्यूंकि
ये सब (खेल- कूद , सामूहिक कार्यक्र… जैसे की शादिया वक्त के साथ धर्म में परिवर्तित हो गयीं ) लोगों के सेक्रेड(sacred) नेचर को बढ़ावा देती है, और मनुस्य अपने सेल्फिश(profane wala) नेचर के जाल से निकल कर एक समाज की रचना कर सकता है................ अब सवाल उठता है की समाजिक रचना के लिए धर्म
की
जरुरत
ही
क्यों पड़ी ! .................दरअसल किसी भी जिव की प्रजाति में समूह बनाने की छमता में एक लिमिटेशन होता ह। उदाहरण के लिए, चिम्पांजी /Chimpanzee(हमारे पूर्वज वाले बंदर ) सिर्फ 56 लोगो का झुण्ड बना सकते हैं ...........वही मनुस्य 150 तक की ही ग्रुप बना सकता है............ इससे ज्यादा बड़ा ग्रुप बनाने के लिए सेक्रेड (Sacred)सोंच की जरुरत होती है.........आपने ध्यान दिया होगा की आर्मी(Army) में भी इसी वजह से बटालियन (आर्मी की सबसे छोटी टुकड़ी ) भी 150 से काम की रखी जाती है ...... ताकि सौहार्द्य
(smooth cooperation)
बना रहे।
अब, यह जानकारी महत्वपूर्ण क्यों है? किसी भी धर्म को अपनाने से पहले, हमें समाजशास्त्रीय तर्क को जानना चाहिए कि यह शब्द (जैसे की
profane एंड sacred )
क्या है।
समय के साथ, धर्म की अवधारणा संकुचित होती चली गयी ..........जिसका जन्म कभी मनुस्य को अपने बायोलॉजिकल लिमिटेशन यानी 150 वाली बैरियर को तोड़के एक बड़ा समाज की रचना करने के लिए हुआ था ......। वह धर्म अब सिर्फ ज्यादातर एक अलौकिक शक्ति से संबंधित कार्यक्रम बन के रह गयी है।
एक समय की कल्पना करें, जब विभिन्न संस्कृतियों और समाजों के बीच सीमित संचार(communication) था । संचार की महत्ता इससे समज सकते हैं की ,आज के वक्त अगर मोबाइल , सॅटॅलाइट कमांउनीकेशन इत्यादि फ़ैल हो जाए तो "आजके पड़े -लिखे मनुस्य की ये समाज भी बिखर जाएगी .........सायद यही कारन है की , आज भी भारत सरकार पाकिस्तान - चीन बॉर्डर पे कम्युनिकेशन दुरुस्त करने में काफी पैसा खर्च करती है। ................। अब वापस अपने काल्पनिक वक्त में चलते है जहाँ संचार नहीं है ....... ऐसे समय में दुनिया स्वाभिक रूप से एक बड़ा समाज की रचना करने के लिए आधुनिक टेक्नोलॉजी पे निर्भर नहीं कर सकती थी। तो उन्हें अपने प्रोफाने नेचर से ज्यादा सेक्रेड को बढ़ाना पड़ा..........फलस्वरूप बहुत से छोटी -छोटी धार्मिक समूहों की रचना हो गयी .........। और मनुस्य ने अपना 150 से बड़ा समुदाय बना लिया..........और अपनी किस्मत बाकी जीवों से अलग करली। अब आप पूछेंगे की किस्मत बाकी जीवो से अलग कैसे हुई ? तो जवाब है.....हमारी सोंचने की छमता आज से 20,000 साल पहले जितनी थी (जब हम सभी एक सीकरी जीवन जीते थे ) आज उससे कम होगयी है.........आसान भासा में हम आज से 20,000 साल इतने होसियार नहीं है.........लेकिन हमारी 150 से बड़ी ग्रुप बनाने की काबिलियत ने आज हमें चाँद और मंगल गृह तक पोंहचा दिया है .............हजार कम दिमाग वाले एक दिमागदार से ज्यादा अच्छा प्रदर्शन कर सकते हैं। ............अब वापस हम अपनी उस काल्पनिक दुनिया में चलते है (जब संचार नहीं था ) ये छोटे -छोटे धार्मिक परिकल्पनाएं किसी आविष्कार से काम नहीं थी ..........लेकिन जैसा की आज भी हर आविष्कार की साइड- इफ़ेक्ट होती है......उस काल में भी ऐसा ही कुछ हुआ। बड़े समूह ने एक मुखिया को जन्म दिया , जो अब अपने समाज को और बड़ा करने के लिए अपने सेक्रेड सोंच को बढ़ाने में व्यर्थ नहीं करना चाहता था। ऐसा इसलिए क्यूंकि धर्म ने पहले ही इतनी बड़ी समाज की रचना कर दी थी की अब वो मुखिया धर्म में थोड़ा बदलाव करके अपने दल के सदस्यों को दूसरे दल को हड़पने के लिए भेज सकता थ। धीरे -धीरे धर्म अपना समाजिक महत्व खोता गया और सिर्फ एक अनजान अलौकिक शक्ति बन के रह गया..........ये लक्छण सभी धर्मो में अलग अलग तरीके से नजर आते है। जैन और बुद्धिज़्म भी समाज के जरूरतों का ही रिजल्ट है............लेकिन जैनिज़्म में जब औद्योगिक क्रांति का तड़का लगा तो वो भी अपने उद्गम श्रोत से हट गयी .........आज के फैक्ट्रीज में जो छोटे मजदूरों का हाल है, उसे खुद महावीर पसंद नहीं करते ...........लेकिन ये कर भी क्या सकते है .....मार्किट में कपिशंन है ........तो मजदूर को ज्यादा पैसा कैसे दे!!!!
अतीत के कुछ घटनाए और आविष्कारी सोंच ने जिस धर्म को जन्म दिया वो वक्त की मांग थी .......इंसानियत की जरुरत थी , और इसी जरुरत ने हमें बांकी जानवरों से अलग कर दिया। और इसी धर्म ने आज के वैज्ञानिक युग को सफल भी बनाया। लेकिन पीढ़ी दर पीढ़ी ये मान्यताएं "राजाओं , औद्योगिक काल के बिजनेसमैन , आजके राजनेताओं" के अतिक्रमण से समाजिक जरूरतों से दूर स्वार्थसिद्धि की और निकल पड़ा ...........धर्म के इस सेक्रेड से प्रोफाने का सफर सिर्फ इसलिए संभव हो पाया क्यूंकि जिस विज्ञानं को धर्म ने जन्म दिया उसी विज्ञानं ने आधुनिक टेक्नोलॉजी से धर्म की जरूरतों को ख़त्म कर दिया (क्यूंकि अब कम्युनिकेशन सुविधा की वजह से हम आराम से 150 से बड़ी समाज बना सकते है.........हमें इस बात पे अब आश्चर्य नहीं होता की लोगो के फेसबुक में 150 से ज्यादा दोसत है और वो भी अलग अलग समुदायों से हैं । )
ऐसी स्थिति में, फॉर्मेलिटी प्रथाओं के बाद, आमतौर पर धार्मिक लोग (जो अनिवार्य रूप से कुछ भी नहीं बताते हैं) की वजह से धार्मिक फॉर्मेलिटी
दिमागी रूप से बेतुकी लगने लगती है । अधिकांश "अनुष्ठान" जो आज प्रचलित हैं, पूँजीवादी बाजार की बदौलत होते हैं। रक्षा बंधन लोकप्रिय है क्योंकि चॉकलेट और उपहार की दुकानें इस मौसम की बिक्री के लिए उत्सुक हैं। और इसका जोर सोर
से प्रचार किया जाता है........अगर आपने पूंजीवादी प्रोडक्ट नहीं ख़रीदे तो आपका रक्छाबन्धन
व्यर्थ है
इसी तरह, दिवाली गिफ्टिंग एक सामाजिक दायित्व है जो मीठे स्टालों और पटाखा कंपनियों के पूर्ववर्ती उद्देश्यों(western
ideas)
से प्रेरित है। इस तरह
के
उग्र
उपभोक्तावाद के कारण, धार्मिक प्रथाएं पहले से कहीं अधिक महत्व खोते हुए एक फॉर्मेलिटी बनके रह गयी है।
एक दिन, अचानक हम अपने आप को एक रेगिस्तान के बीच में पाएंगे जो किसी चीज़ की तलाश कर रहा है। हम अतीत में अपने अनजाने धार्मिक कार्यों का कोई संबंध नहीं पाएंगे और भविष्य में कुछ दिखेगा नहीं ; लेकिन फिरभी हम कुछ ऐसी गतिविधि करते रहेंगे, जिसका वर्तमान में कोई अर्थ नहीं होगा , यह स्थिति अजीब होगी ना? ऐसी स्थिति से बचने के लिए, आज की पीढ़ी के युवाओं को इस तरह के अर्थहीन संस्कारों की माया जाल को हटाकर अपने कार्यों को रीसेट करना होगा ; एवम भावना और फॉर्मेलिटी के बजाय अपने कार्यों को उद्देश्य और तर्क से जोड़ने का प्रयास करना होगा।
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